खोपड़े चंद (रेडियो नाटक)
रचना दीक्षित |
कथा: रचना दीक्षित
पटकथा: पूनम पाठक 'चंद्रलेखा'
पात्र: शालिनी,अभिषेक (शालिनी के पति) राहुल (शालिनी का 8-10 वर्षीय बेटा, भीड़ महिला 1, पात्र 2, पात्र 3, जादू, दादी, माँ, पापा, बहन, ज़ोमेटो बॉय
***
शालिनी (स्वगत कथन) घर के न जाने कितने ही काम इकट्ठे होते जा रहे हैं आज तो हर हाल में बाजार जाना ही होगा। राहुल , ओ राहुल तू चलेगा क्या मेरे साथ बाजार?
राहुल: हाँ माँ , क्यों नहीं! मुझे भी बहुत दिन हो गए कहीं बाहर गए हुए।
शालिनी: अच्छा सुन दो-तीन थैले स्टोर रूम से निकाल ले जरा!
राहुल: अच्छा माँ! (सुर में) जाते हैं जाते हैं बाजार जाते हैं ...हम और मम्मा दोनों बाजार जाते है ... (गुनगुनाहट)
(पदचाप)
शालिनी: कहाँ गई गाड़ी की चाभी? राहुल तूने देखी क्या?
राहुल: (हँसते हुए) जाने कहाँ गाड़ी की चाभी गई रे! अभी अभी यहीं थी, किधर गई रे, कहीं किसी जादू से उड़ गई रे ...(फिर हँसता है)
शालिनी: देख इस वक्त मजाक मत कर ... एक तो गाड़ी की चाभी नहीं मिल रही और ऊपर से तेरा बेसुरा राग ... अं अं अं ये रही। मिल गई। चल जल्दी बैठ गाड़ी में।
(गाड़ी स्टार्ट करने की आवाज)
राहुल: अरे! ये क्या गाड़ी क्यों स्टार्ट नहीं हो रही है माँ?
शालिनी: (झुँझलाते हुए) क्या हुआ होगा...
राहुल: (सुर में) ये मौसम का जादू है मम्मा ...
शालिनी: ओह्ह मैं भी न कितनी भुलक्कड़ हूँ। सीट बेल्ट तो लगाई ही नहीं! राहुल तू भी सीट बेल्ट लगा ले!
(बेल्ट लगाते ही एक बढ़िया गाना अपने आप ही बज उठा गाड़ी चलते ही)
शालिनी: वाह कितना प्यारा गाना है। बिल्कुल मेरी पसंद का।
राहुल: कितनी हरियाली है न इस रास्ते के दोनों ओर।
शालिनी: (प्यार से) थोड़ी सनरुफ भी खोल ले राहुल! रोशनी और ठंडी ताजी हवा के झोंकों का मज़ा भी लें लें। आज कितने दिनों बाद तो घर से बाहर निकल पाई हूँ।
(स्वयं भी गाना गुनगुनाने लगती है)
शालिनी: अरे! ये क्या! कोई दुर्घटना हुई है क्या?
(भीड़ की बातें, हँसने और हल्के शोर की मिली जुली आवाज़ें)
राहुल: माँ! गाड़ी रोको जरा। पर ये क्या यहाँ तो लोग हँसते और ठहाके मारते दिखाई दे रहे हैं!
शालिनी: ये तो बड़ी अजीब सी बात है! !
राहुल: पर ऐसा तो कभी नहीं देखा यहाँ पर।
शालिनी: क्या करें? उतरें? देखें? या आगे चला जाए? बोल क्या कहता है? भीड़ में महिलाएँ और बच्चे भी तो हैं!
(भीड़ की बातें, हँसने और हल्के शोर की मिली जुली आवाज़ें)
राहुल: चलते हैं माँ आखिर देखे तो कि वहाँ चल क्या रहा है?
शालिनी: रस्सी तो नहीं दिख रही सो नट या नटी तो हैं नहीं, न ही डमरु बज रहा है और भालू बंदर भी नहीं। तो हो क्या रहा है भाई? अरे मैं निकल क्यों नहीं पा रही। लो! ये सीट बेल्ट फिर से फंस गई है लगता है।
राहुल: (ज़ोर-ज़ोर से हँसता है)
शालिनी: (झुँझलाते हुए) अब इसमें हँसने की क्या बात है?
राहुल: (बनावटी और डरावनी किसी साधुनुमा आवाज में) ये मौसम का जादू है बच्चा! लगता है कोई बड़ी मुसीबत आने वाली है इसीलिए वहाँ जाने से रोक रही है। (हँसता है)
शालिनी: तू भी न राहुल ... चल देखते हैं क्या हुआ है यहाँ।
(दोनों गाड़ी से उतर कर भीड़ के पास पहुँचते है। आवाज़ें जारी हैं)
शालिनी: आखिर माजरा क्या है। आप लोग यहाँ क्यों जमा हैं और... और इतना हँस क्यों रहे हैं?
भीड़ महिला 1: (हँसते हुए) खुद ही देख लो क्या नमूना है, हम तो नहीं पहचान पाए। आप कुछ पढ़ी लिखी दिख रही हो तो आप ही देख लो और बताओ।
शालिनी: हाँ हाँ क्यों नहीं। इसमें कौन सी बड़ी बात है। अभी लो।
राहुल: (कुछ पलों बाद आश्चर्य मिश्रित भय से) अरे ये क्या है! कौन सा प्राणी है ये! इंसान है या जानवर?
(कुछ सोचते हुए) कोई तो प्राणी ही है यह। सिर्फ 4 फुट लम्बा!
शालिनी: शरीर बड़ा और टांगें कितनी छोटी! और बहुत पतली। और इसका पंजा ...
राहुल: बिल्कुल सपाट और कितना बड़ा। और... और ये इसकी उँगलियाँ! !
भीड़ पात्र 2: ये आपस में जुड़ी हुई सी कैसी है?
शालिनी: देखो तो इसकी कमर भारी और यह पेट! बाप रे! 2 से ढाई फुट आगे की तरफ बड़ा और निकला हुआ।
राहुल: (हँसते हुए) माँ इस पर तो 12 से 15 इंच की थाली आराम से रखी जा सके। ये तो अपने साथ चलती फिरती मेजनुमा पेट लिए हुए है।
शालिनी: इसके शरीर का ऊपरी भाग भी तो निचले की अपेक्षा बड़ा है!
राहुल: लेकिन हाथ साधारण से कुछ पतले, हथेली साधारण से कुछ बड़ी पर उंगलियां ... काफी बड़ी, कुछ 10 इंच लंबी तो होंगी। हैं न माँ!
शालिनी: यह प्राणी कितना डरावना लग रहा है।
राहुल: हाँ माँ, लगभग 5 इंच लम्बे उसके नाखून - चेहरा छोटा आगे की तरफ पतला, पीछे थोड़ा चौड़ा,
शालिनी: इसकी आँखें ... बड़ी और बुरी तरह बाहर निकली हुईं
राहुल: सर पर कम और बिखरे हुए बहुत महीन बाल।
शालिनी: कान बड़े और उनके छेद काफी बड़े और गर्दन झुकी हुई लगभग 130 डिग्री पर।
भीड़ पात्र 3: देखा बोला था न! आप भी इसे देख कर हँसने लगीं न! देखो न कुछ बोलता भी नहीं है ये। लगता है मकर संक्रांति का चूड़ा और दही अब तक इसके मुँह में जमे हुए हैं।
शालिनी: (विचित्र प्राणी से) तुम इतना डरे हुए क्यों हो? और इस तरह गर्दन नीचे करके क्यों खड़े हो?
भीड़ पात्र 2: हा! हा! हा! अरे इसकी तो गर्दन ही इससे ऊपर नहीं जाती है।
राहुल: (हँसते हुए) बिल्कुल ऋतिक रौशन की फिल्म "कोई मिल गया" और उसका वो “जादू” जैसा लगता है यह। भीड़ पात्र 2: पर वह तो काल्पनिक था और ये... ये तो जीता जागता है। ऋतिक रौशन का "जादू" कैसे जीवंत हो उठा, वो भी इतने सालों बाद!
(लोगों के हँसने और खिलखिलाने की आवाज़ें)
जादू: आंटी यह लोग मुझे जाने नहीं दे रहे हैं।
राहुल: (आश्चर्य से) अरे "जादू" तो बोल भी सकता है।
शालिनी: सब चुपो! अभी! मुझे इससे बात करने दो। (जादू दे मुखातिब होकर) हाँ, तुम बोलो, कहाँ जाना है तुम्हें?
जादू: अपने घर जाना है, क्या आप मुझे मेरे घर तक छोड़ देंगी?
शालिनी: (राहुल से फुसफुसाते हुए) क्या करूं, क्या कहूँ?
राहुल: आखिर बाजार भी तो जाना है हमें।
शालिनी: यह विचित्र सा बालक कितनी उम्मीद लगाए हुए है मुझसे। (कुछ सोचते हुए जादू से) अच्छा चलो ठीक है। मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँगी।
(लोगों की आवाज़ें)
शालिनी: (भीड़ से) चलिए, चलिए थोड़ा हटिए आप लोग। कृपया इसे निकलने के लिए थोड़ा रास्ते दें।
(बालक से) और तुम! मेरे पीछे आओ। जल्दी करो। अरे अरे ठहरो! आगे नहीं, तुम पीछे की सीट पर बैठो।
(गाड़ी का दरवाजा बंद करने की आवाज)
शालिनी: अच्छा बताओ किधर चलना है?
जादू: बहुत बहुत शुक्रिया आंटी! आगे से लेफ्ट and then take right turn. Thank you so much aunty for your kindness. You have saved my life.
राहुल: अरे वाह तुम तो अंग्रेजी भी बड़ी अच्छी बोल लेते हो ...
शालिनी: तुम कौन हो और यहाँ कैसे पहुंचे?
जादू: मैं यहीं एक सोसाइटी में रहता हूँ, पापा के साथ बाइक पर निकला था। हेलमेट लगी थी तो कोई पहचान नहीं सकता था
राहुल: ओह फिर?
जादू: फिर जैसे ही एक स्पीड ब्रेकर पर पापा ने ब्रेक मारा, मैं नीचे गिरा और मेरा हेलमेट टूट गया जिससे मेरा चेहरा उजागर हो गया। मैं लोगों से डर कर छुप कर भागने लगा। लोगों ने मुझे छुपते-छुपाते देखा तो और भीड़ लग गई और सब मेरी हंसी उड़ाने लगे।
शालिनी: ओहो यह तो बहुत बुरा हुआ।
जादू: यह तो आप आ गईं तो मेरी जान बच गई
राहुल: और तुम्हारे पापा? वे चले गए तुम्हें इस हालत में छोड़ कर?
जादू: इस भीड़ में तो मेरे पापा भी नहीं आ पाते मुझे बचाने क्योंकि मेरे साथ ही वह भी मारे जाते।
शालिनी: अब आगे किधर जाना है?
जादू: बस बस आंटी! यहीं इस बिल्डिंग के बाहर रोक दीजिए गाड़ी।
राहुल: यहाँ! इस सुनसान सी जगह पर! बड़ी अजीब सी जगह लग रही है यह।
शालिनी: अच्छा चलो हम तुम्हें अंदर तक छोड़ देते हैं।
(डोर बैल की आवाज, फिर दरवाजा खोलने की आवाज। अंदर से आती हुई पदचाप सुनाई देती है)
दादी माँ: (लगभग 80 साल के आसपास की) आओ...अंदर आओ न...
राहुल: (धीमी आवाज में) माँ, ये तो उस लड़के जैसे नहीं दिखती! !
जादू: आंटी इनसे मिलिये यह मेरी दादी है।
शालिनी: पर यह तो...
जादू: हाँ! जानता हूँ, आपका यही सवाल होगा....कि मेरी दादी दिखने में आपकी ही तरह बिल्कुल सामान्य हैं। और मैं ऐसा क्यों हूँ? प्लीज! आ .. आप बैठिए तो सही। मैं आपको कुछ दिखना चाहता हूँ। (कुछ क्षणों बाद) ये देखिए आंटी , This is my family photograph. My grandma, grand pa and this is my uncle, and aunt
राहुल: अरे ये सभी तो बिल्कुल सामान्य हैं। हमारे जैसे सामान्य शरीर वाले। .. .(फिर कुछ घबराते हुए जल्दी से) माँ चलो चलो चलते हैं। हमें देर हो रही है। बाजार भी तो जाना है।
(कुछ और पदचाप)
जादू: ये मेरी माँ और ये छोटी बहन है। थोड़ी देर और रुकिए न प्लीज! माँ तुम भी कुछ बोलो न!
जादू की माँ: ओ हो बहन जी। इतनी भी क्या जल्दी है? समझ सकते हो आप तो! बच्चे का मन रखने के लिये कुछ देर रुक जाइये। वह आप से इतना कह रहा है तो कुछ देर रुककर इससे बातें कर लीजिये न। आप थोड़ी देर बाद चली जाइएगा न! समझ सकते हो आप तो बच्चे का मन!
जादू की बहन: हाँ आंटी प्लीज! अभी मत जाइए न आंटी जी। आप रुकेंगी तो हमें अच्छा लगेगा।
शालिनी: (घबराए स्वर में) नहीं नहीं मैं अब और नहीं रुक सकती। मुझे जाना है। देर हो रही है।
जादू: आंटी जरा अपना फोन तो दीजिए।
(नंबर डायल करने की आवाज फिर फोन की रिंग टोन बजती है)
जादू: ये लीजिए अब मेरा नंबर आपके फोन में सेव हो गया आंटी जी। दुबारा फिर आइएगा आंटी। आपसे बहुत कुछ साझा करना है और कहना है।
दादी माँ: (आँखों में आँसू भर कर) आपका एहसान याद रहेगा। किसी दिन समय निकाल कर जरूर आना।
(दरवाज़ा खुलने और बाहर आने की आवाज़)
शालिनी: बाप रे बाप! कैसे अजीब लोगों में फँस गए आज आज। जल्दी भागें यहाँ से।
राहुल: जान बची तो लाखों पाए। बाजार वाज़ार फिर कभी देखा जाएगा। जल्दी करो माँ
(गाड़ी स्टार्ट करने और चलने की आवाज)
(दोनों घर पहुँच कर ज़ोरों से कॉल बेल बजाते है)
अभिषेक: अरे तुम दोनों भरी दोपहरी में! कहाँ से आ रहे हो भई? लगता है जैसे कोई हॉरर मूवी देखने गए थे। (हँसते हुए) दोनों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही हैं। (फिर हँसता है)
राहुल: आज तो बड़े बुरे फंस गए थे हम लोग पापा!
अभिषेक अरे! ऐसा क्या हो गया? बताओ तो ...
शालिनी: हुआ यूँ कि आज जब हम बाजार जाने के लिए घर से निकले तो कुछ दूरी पर भीड़ लगी हुई देखी ... जाकर देखा तो ...वहाँ...
(फ़ास्ट फ़ॉरवर्ड में कुछ बातचीत, या फिर कुछ देर संगीत ध्वनि)
राहुल: बस किस तरह जान बचा कर भागे हैं वहाँ से यह हम लोग ही जानते हैं। उफ़... क्या लोग थे! !
अभिषेक: तुम लोग भी कमाल ही करते हो, क्या जरूरत थी इसमें पड़ने की?
शालिनी: सच में। पर उस लड़के को उस भीड़ में मेरी सख्त जरूरत थी। अगर मैं उसकी मदद न करती तो उसके साथ कुछ भी हो सकता था।
अभिषेक: अच्छा अच्छा ठीक है। अब भूल भी जाओ इस घटना को बुरा सपना समझ कर।
राहुल: माँ बड़े ज़ोरों की भूख लगी है अब तो। कुछ दो न खाने को।
शालिनी: अभी देती हूँ।
(दो दिन बाद शालिनी के फोन की घंटी बजती है)
शालिनी: हैलो! हैलो! कौन?
जादू: हैलो, हैलो आंटी, मैं। आपसे मिलने का और बात करने का बहुत मन है। (दर्द भरी आवाज विनती करता हुआ) मन में बहुत कुछ है जो आपको बताना चाहता हूँ, प्लीज सिर्फ एक बार आ जाओ, दोबारा के लिए मैं नहीं बोलूंगा।
शालिनी: अच्छा ठीक है सोचती हूँ। तुम घर की लोकेशन फॉरवर्ड कर दो। समय मिलते ही आती हूँ।
(फोन कटने की आवाज)
शालिनी: (अभिषेक से) सुनो! मैं उस जादू के घर उससे मिलना चाहती हूँ। उसका फोन भी आया था। लेकिन तुम भी चलो इस बार मेरे साथ। ।
अभिषेक: चलो ठीक है। मैं भी चले चलूँगा तुम्हारे साथ। तो आज शाम को ही चलते हैं। मैं भी तो देखूँ उस अजीबोगरीब परिवार को।
(संगीत बजता है। गाड़ी स्टार्ट और फिर रुकने की आवाज। डोर बेल की 2-3 बार आवाज)
(घंटी बजने के काफी देर बाद दरवाजा खुलता है)
दादी: नमस्ते नमस्ते। आइए। भीतर आइए।
शालिनी: (जादू से) अरे तुम यहाँ दरवाजे के पीछे खड़े क्या कर रहे हो?
जादू: दादी का हाथ दरवाजे तक नहीं पहुंचता है तो दरवाजा मैं ही खोलता हूँ। आप लोग आइए, यहाँ बैठिए, इस तरफ, इस सोफ़े पर।
(वह बालक अपने फोन में कुछ नंबर डायल करने लगा। थोड़ी ही देर बाद फिर घंटी बजती है)
दादी: (स्वगत) कुण्डी नहीं लगी है। (बोलकर) मैं जाकर देखती हूँ
जादू: रुको मैं भी आता हूँ दादी।
(पदचाप)
ज़ोमेटो बॉय: आपका पार्सल है
दादी: लाओ मुझे दे दो।
शालिनी: (फुसफुसाते हुए पति से) देखो न! ये लड़का कितने धीरे चलता है और काम भी बहुत मुश्किल से कर पा रहा है। है न!
अभिषेक: हुम ...
(पैकेट खोलने की आवाज)
जादू: ये लीजिए आपके लिए कोल्ड ड्रिंक और चिप्स मँगवाए हैं।
शालिनी: अरे इसकी क्या जरूरत थी? हम तो घर से ही आ रहे हैं।
अभिषेक: हाँ बिल्कुल। और हम आमतौर पर बाहर का कुछ नहीं खाते अपना खाना साथ लेकर चलते हैं।
(पृष्ठभूमि में मर्मस्पर्शी संगीत बजता है)
जादू: (भर्राये गले से) घर का खाना! घर का खाना खाए तो जाने कितना समय बीत गया... दादी अब अशक्त हैं, नहीं बना सकती और हमारे परिवार की हालत तो आप देख ही रही है, हम कुछ नहीं कर सकते।
अभिषेक: ठहरो! मैं अभी आता हूँ।
(पदचाप)
अभिषेक: (कुछ देर बाद) ये लीजिए। हमारा टिफिन। गाड़ी में ही रखा था। आप लोग खा लीजिये।
(सभी माँ ,बेटा, बेटी, दादी उस थोड़े से खाने पर टूट पड़ते हैं। खाना खाने और पानी पीने की आवाज़ें)
शालिनी: (अभिषेक से, फुसफुसाते हुए) तुमने कुछ नोटिस किया। यहाँ हर कोई एक-एक लैपटॉप लिए है या मोबाइल पर काम कर रहा है। वो बच्चा, उसके पापा, ममी, बहन भी।
शालिनी: आपका यह हाल कब, कैसे और क्यों हुआ? आज तो तुम्हारे पापा से भी मुलाकात हो गई।
पापा: मुझे कुछ पता नहीं पर धीरे-धीरे कुछ ही सालों में यह सब हो गया...
(पृष्ठभूमि में मार्मिक ध्वनि बजती है)
पापा: अब हम और हमारे जैसे बहुत से लोग घरों में छुपकर ही रहते हैं। बाहर नहीं निकलते और घर से ही नौकरी करते हैं।
अभिषेक: यह सब कैसे हुआ होगा? और आप लोगों की दिनचर्या क्या है और आपकी इस हालत के पहले की दिनचर्या क्या थी?
पापा: पहले भी यही दिन दिनचर्या थी आज भी वही है।
शालिनी: मैं कुछ समझी नहीं। थोड़ा विस्तार से बताइये।
पापा: (भर्राये गले से) क्या बताएँ...
(पृष्ठभूमि में मार्मिक ध्वनि बजती है)
पापा: हम सुबह उठकर कॉफीमेकर या टीमेकर से चाय कॉफी बना कर पी लेते हैं और साथ ही कुछ बिस्किट या चिप्स खा लेते हैं। (थोड़ा रुककर) फिर कुर्सी पर बैठकर सारा दिन ऑफिस का काम करते हैं पिक्चर देखते हैं और ऑनलाइन सर्फिंग करते हैं क्योंकि समय नहीं होता तो खाना बाजार से ही आता है।
जादू की बहन: खाना आते ही उसी डब्बे में खा लेते हैं फिर काम करने बैठ जाते हैं।
जादू की माँ: हाँ जी हाँ, वही बस्स! शाम की चाय रात का खाना ऐसे ही होता है। समझ सकते हो आप! बाकी भी खाया, काम किया, खाया, काम किया, खाया, काम किया में यूँ ही दिन बीत जाता है। समझ सकते हो आप! बीच में समय मिल गया तो नहा लिया, नहीं मिला समय यदि, तो नहीं नहाया। बाकी तो ऐसे ही चलता है। समझ सकते हो आप!
पापा: आजकल पसीना भी ज्यादा नहीं आता क्योंकि दिन भर तो पंखे और एसी में ही रहते हैं इसलिए रोज नहाना जरूरी भी नहीं लगता।
शालिनी: ओह! अब कुछ कुछ समझ में आ रहा है। मतलब यह कि आप लोग सारा दिन कुर्सी पर बैठे रहकर और मोबाइल और लैपटॉप पर ही काम करते हैं और कोई दिनचर्या नहीं है?
पापा: नहीं काम ही इतना था। फिर कोविड की वजह से दो-तीन साल से घर में बैठना मजबूरी हो गया, तब से यह सब झेल रहे हैं। (थोड़ा रुक कर) क्या आपके पास कोई सुझाव है मेरे लिए परिवार के लिए? क्या हम पूरा नहीं तो कुछ कुछ पहले जैसे हो सकते हैं?
शालिनी: आपकी समस्या वाकई बड़ी गंभीर है। आज तो बहुत रात हो गई। अगली बार आएंगे तब बात करेंगे। अभी हम चलते हैं।
(पहले पदचाप की ध्वनि फिर गाड़ी के स्टार्ट होने और जाने की ध्वनि)
(अभिषेक और शालिनी घर वापस लौटते ।, कॉल बेल बजने की आवाज, पदचाप और फिर दरवाजा खुलने की आवाज)
अभिषेक: (लंबी साँस लेते हुए) वाकई शालिनी ये तो बड़ी गंभीर समस्या लग रही है।
शालिनी: सो तो है!
राहुल: इतनी जल्दी आप लोग वापस आ गए पापा!
अभिषेक: देख कर भी तो विश्वास सा नहीं हुआ। पर है बिल्कुल सच।
राहुल: और वो पापा, हमारा खोपड़े चंद , कैसा है वो (हँसता है)
शालिनी: राहुल हर समय मज़ाक अच्छा नहीं बेटा!
राहुल: सॉरी माँ। पर हर समय मोबाइल लैपटॉप पर काम करने से खोपड़े चंद तो बनेगा न।
अभिषेक: टेकनोलॉजी का आवश्यकता से अधिक प्रयोग करने का यही तो बड़ा नुकसान है। आजकल तो हर चीज मिनटों में हो जाती है। जिन चीजों को पहले सालों लगते थे सदियां लगते थे, चुटकी बजाते ही हो जाते हैं, कहीं जाना हो, कुछ देखना हो ऑनलाइन सब कुछ दिख जाता है। बैठे-बैठे पूरे विश्व का भ्रमण कर लो, बिना हिले डुले।
राहुल: पापा आजकल सब कुछ एक उंगली पर ही तो है, एक क्लिक पर ही हो जाता है।
शालिनी: “क्लिक” हुँ! ! (कुछ सोचते हुए) ओह अच्छा तो यह माजरा है अब समझ आया, स्कूल में पढ़ी थी यूज एंड डिसयूज थ्योरी, जहाँ कभी इंसान के एक पूँछ हुआ करती थी।
राहुल: हाँ अब याद आया। मेरी टीचर ने बताया था कि इस्तेमाल न करने से वह धीरे-धीरे विलुप्त हो गई
अभिषेक: और यहाँ तो जाने क्या क्या विलुप्त हो गया। अब सब समझ आ गया।
शालिनी: और तो और यह आइ टी कंपनी वाले और कोविड में वर्क फ्रॉम होम करने वाले इस बीमारी से पीड़ित है क्योंकि करना कुछ नहीं है, ना किसी से मिलना है, ना कुछ सामाजिक सरोकार है सिर्फ कंप्यूटर, घर और खाना।
अभिषेक: हाँ। अब ये सब इतना ज्यादा आसान है, खाना बनाना नहीं है, बाजार से आ गया तो खोला, खा लिया। मतलब यह कि सुबह उठकर चाय बनाई और काम पर बैठ गए जब फिर भूख लगी, कुछ रेडीमेड खा लिया।
राहुल: मतलब कि हिलना डुलना नहीं है। सिर्फ दरवाजा खोलना है और उंगलियों का इस्तेमाल है, आँखों का इस्तेमाल है और पैरों का सिर्फ दरवाजा खोलने, बाथरूम जाने के लिए इस्तेमाल है।
शालिनी: और बाकी दिन भर तो बैठे रहना है। तभी तो यह हाल हो गया है इन लोगों का।
अभिषेक: यह लोग जो सारा दिन बैठे हैं, पैरों का इस्तेमाल नहीं हो रहा तो वह पतले हो रहे हैं।
राहुल: और न चल पाने के कारण उंगली आपस में जुड़ गई होंगी। सही कहा न पापा। अब मुझे भी कुछ कुछ समझ आ रहा है।
अभिषेक: हाँ बिल्कुल बेटा! सारा दिन बैठे हैं तो कमर भारी हो रही है, बैठे-बैठे खा रहे हैं तो पेट बाहर आ रहा है। ऊपर का शरीर प्रयोग में ज्यादा आ रहा है इसलिए थोड़ा बड़ा है। हाथ साधारण है पर सारा काम हाथों से इसलिए हथेली बड़ी है
शालिनी: इसके बाद सबसे ज्यादा दारोमदार उंगलियों पर है। इतनी फुर्ती से लैपटॉप और मोबाइल पर फैलती है इसलिए उंगलियां बहुत लंबी हैं।
अभिषेक: सबसे ज्यादा काम आँखों से हो रहा है। सिर्फ कम रोशनी में पढ़ना लिखना, इस चक्कर में आँखें बाहर की ओर निकल रही हैं।
शालिनी: हद तो तब है कि नहाना-धोना शरीर की साफ-सफाई शायद ना के बराबर है। इसलिए बाल महीन, झड़े हुए, शरीर की त्वचा सूखी क्योंकि उसकी कोई देखभाल नहीं हो पाई।
राहुल: एक बात समझ नहीं आई कि अब इतनी जल्दी कैसे हो गया?
शालिनी: अरे बेटा पहले तो इन चीजों में भी सदियां लगती थीं, आज तो कंप्यूटर में 4जी और 5G का जमाना है, यहाँ हर चीज त्वरित है। सब कुछ आसानी से मिनटों में हासिल। जितना उपयोग हो करो, नहीं तो फेंको और आगे बढ़ो।
राहुल: यानि यूज़ एंड थ्रो। आजकल यही तो होता है चीज को इस्तेमाल करो और फेंक दो।
शालिनी: बिल्कुल सही कह रहे हो तुम।
राहुल: पर यह शरीर अचानक नहीं बदल सकता, न ही फेंका जा सकता। पर धीरे धीरे सब बदल रहा है, खिंच रहा है, घट रहा है।
शालिनी: (पति से) अच्छा सुनो! मैं कल सुबह ही जादू के पापा को फोन करके उनको बताती हूँ।
अभिषेक: शालिनी ऐसी बातें फोन पर नहीं की जा सकती। कल हम सब उनके घर चल कर उनको समझाएंगे।
शालिनी: यह सही रहेगा। बहुत रात हो गई है अब सोते हैं। अधिक रात तक जागना भी तो उचित नहीं हैं स्वास्थ्य के लिए।
(अगली सुबह। चिड़ियों की चहचहाहट की आवाजों के साथ फोन पर नंबर डायल करने की ध्वनि फिर घंटी की आवाज। गाड़ी स्टार्ट फिर रुकने और कॉल बेल की आवाज)
पापा: अरे! इतनी सुबह? सब ठीक है न! आइए भीतर आइए न!
शालिनी: नमस्कार
अभिषेक: नमस्कार
राहुल: नमस्ते अंकल
पापा: नमस्ते! आइये आइये, भीतर आइये।
शालिनी: कल से हम लोग आप लोगों के बारे में ही सोच रहे थे।
अभिषेक: और आपकी समस्या का भी समाधान हो सकता है।
पापा: (आश्चर्य मिश्रित खुशी के साथ) क्या वाकई?
शालिनी: जी वाकई हो सकता है।
अभिषेक: आप लोग अपनी इस कंप्यूटर और मोबाइल की दुनिया से बाहर आओ कुछ हिलो डुलो, लोगों से कुछ सामाजिक सरोकार रखो। मिलो जुलो।
राहुल: और हाँ अपने शरीर के अंग जो आप लोगों ने इस्तेमाल करने बंद कर दिए थे फिर से इस्तेमाल करना शुरू करो। यानि खेलना – कूदना , शारीरिक व्यायाम ये सब नियमित रूप से कीजिए।
पापा: आप ... आप लोग सच कह रहे हैं? क्या सच में ऐसा करने से हम पहले की तरह सामान्य हो जाएंगे?
अभिषेक: हाँ बिल्कुल! मुझे पूरी उम्मीद है कि ये सब एक बार फिर तुम्हें तुम्हारे सामान्य जीवन की ओर ले जायेंगे।
शालिनी: बस थोड़ी उम्मीद रखिए। समय लगेगा।
पापा: मैडम आपका बहुत बहुत शुक्रिया। आपने हमें इस शारीरिक नरक भोगने से बचा लिया।
राहुल: आओ चलो हम बाहर खेलने चलते है।
जादू: हाँ चलो।
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